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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


सुभागी मुंशी प्रेम चंद

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बँटवारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानों पेंशन मिल गयी। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ-न-कुछ करते ही रहते थे; पर अब उन्हें पूरा विश्राम था। पहले दोनों दूध-घी को तरसते थे। सुभागी ने कुछ रुपये बचाकर एक भैंस ले ली। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका भोजन है। अच्छा भोजन न मिले तो वे किस आधार पर रहें। चौधरी ने बहुत विरोध किया। कहने लगे, घर का काम यों ही क्या कम है कि तू यह नया झंझट पाल रही है। सुभागी उन्हें बहलाने के लिए कहती - दादा, दूध के बिना मुझे खाना नहीं अच्छा लगता।
लक्ष्मी ने हँसकर कहा- बेटी, तू झूठ कब से बोलने लगी। कभी दूध हाथ से तो छूती नहीं, खाने की कौन कहे। सारा दूध हम लोगों के पेट में ठूँस देती है।
गाँव में जहाँ देखो सबके मुँह से सुभागी की तारीफ। लड़की नहीं देवी है। दो मरदों का काम भी करती है, उस पर माँ-बाप की सेवा भी किये जाती है। सजनसिंह तो कहते, यह उस जन्म की देवी है।
मगर शायद महतो को यह सुख बहुत दिन तक भोगना न लिखा था।
सात-आठ दिन से महतो को जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। देह पर कपड़े का तार भी नहीं रहने देते। लक्ष्मी पास बैठी रो रही थी। सुभागी पानी लिये खड़ी है। अभी एक क्षण पहले महतो ने पानी माँगा था; पर जब तक वह पानी लावे, उनका जी डूब गया और हाथ-पाँव ठंडे हो गये। सुभागी उनकी यह दशा देखते ही रामू के घर गयी और बोली- भैया, चलो, देखो आज दादा न जाने कैसे हुए जाते हैं। सात दिन से ज्वर नहीं उतरा।
रामू ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा- तो क्या मैं डाक्टर-हकीम हूँ कि देखने चलूँ ? जब तक अच्छे थे, तब तक तो तुम उनके गले का हार बनी हुई थीं। अब जब मरने लगे तो मुझे बुलाने आयी हो !
उसी वक्त उसकी दुल्हन अंदर से निकल आयी और सुभागी से पूछा- दादा को क्या हुआ है दीदी ?
सुभागी के पहले रामू बोल उठा- हुआ क्या है, अभी कोई मरे थोड़े ही जाते हैं।
सुभागी ने फिर उससे कुछ न कहा, सीधे सजनसिंह के पास गयी। उसके जाने के बाद रामू हँसकर स्त्री से बोला - त्रियाचरित्र इसी को कहते हैं।
स्त्री - इसमें त्रियाचरित्र की कौन बात है ? चले क्यों नहीं जाते ?
रामू - मैं नहीं जाने का। जैसे उसे लेकर अलग हुए थे, वैसे उसे लेकर रहें। मर भी जायें तो न जाऊँ।
स्त्री- मर जायेंगे तो आग देने तो जाओगे, तब कहाँ भागोगे ?
रामू - कभी नहीं ? सब कुछ उनकी प्यारी सुभागी कर लेगी।
स्त्री - तुम्हारे रहते वह क्यों करने लगी !
रामू - जैसे मेरे रहते उसे लेकर अलग हुए और कैसे !
स्त्री - नहीं जी, यह अच्छी बात नहीं है। चलो देख आवें। कुछ भी हो, बाप ही तो हैं। फिर गाँव में कौन मुँह दिखाओगे ?
रामू - चुप रहो, मुझे उपदेश मत दो।

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